मुझे मोक्ष नहीं चाहिये
प्रसंग 1946 का है। महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी दिल्ली से लौटकर प्रयाग रुके। स्वागतगर्ताओं की भीड़ स्टेशन पर जुटी। वे हिन्दुत्व की प्रतिमूर्ति थे, सरल, सादा जीवन, सेवा के लिए सदैव उद्यत। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सेवाओं को कौन भूल सकता है ?
देश विभाजन की चर्चा सुनकर उन्हें मर्मांतक पीड़ा होती थी। नोआखाली में हिन्दुओं पर भीषण अत्याचारों के समाचारों से उन्हें अत्यन्त मानसिक कष्ट था।
उसी पीड़ा से वे अस्वस्थ रहने लगे थे। प्रयाग में उनके विश्राम की व्यवस्था की गयी। चिकित्सा एवं सुश्रुषा प्रारम्भ हुई। परन्तु मालवीय जी के चेहरे की प्रसन्नता न लौटी।
एक दिन उन्होंने अपने सहयोगी को बुलाकर कहा। तुम एक बात याद रखना, यदि मुझे अस्वस्थता में होश न रहे और लोग मुझे अन्तिम समय में काशी ले जाना चाहें तो मना कर देना।
मेरी यह इच्छा बता देना।
ऐसा आप क्यों कर रहे हैं महामना ! रुंधे स्वर में सहयोगी ने पूछा।
काशी क्षेत्र में प्राण त्यागने से मोक्ष मिल जाता है, पर मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।
मुझे तो फिर से यहां जन्म लेकर जन-सेवा के अनेक कार्य, जो अभी अधूरे हैं, पूर्ण करने हैं।
मालवीय जी की ज्वलन्त भावना – मां की सेवा यदि अधूरी है तो मोक्ष नहीं चाहिए।
फिर देह धारण कर जन सेवा करूंगा, सुनकर सहयोगियों के नेत्रों से टपटप अश्रु प्रवाहित होने लगे।
Motivational Story – pandit manmohan malviya ji – Desh prem